Wednesday, December 28, 2011

सुखदायक वर्ष हो घनेरा


सुखदायक वर्ष हो घनेरा
१०.४.१९१६
जग में सब ठौर सत्य फैले, मिट जाय विचार भी विषैले |
विकसे शुभकर्म धर्म सारे, वसुधा सुख शान्ति को पसारे |
बढ़ जाय सदैव प्यार तेरा, सुखदायक वर्ष हो घनेरा ||
चमके सब ठौर तेज तेरा,
सुखदायक वर्ष हो घनेरा ||
सुख भारतवर्ष नित्य पावे ! अधिकार स्वतंत्र शक्ति आवे !
रिपु की प्रभु दुष्ट बुद्धि तारे ! सब सत्य विचार हों हमारे !
कर दे मृदु न्याय नाथ तेरा,
सुखदायक वर्ष हो घनेरा ||
धरणीश उदार दानदाता, यश उन्नति को सुहाता,
सुख संतति प्रेम से लुभावे, सब ही शुभकामना मनावे |
चित्त हो सुचरित्र का चितेरा,
सुखदायक वर्ष हो घनेरा ||
सब मंगल मूल गीत गा दो, मन मेल मिलाप में लगादो,
खुले खल खेल का पिटारा, मिट जाय अनर्थ का पसारा |
तब भक्ति तजे न चित्त मेरा,
सुखदायक वर्ष हो घनेरा ||
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Monday, December 26, 2011

शिशिर की शीत में (Shishir Ki Sheet Mein)



शिशिर की शीत में

६.१२.१९३१

राज तेज ताप मारि राजनीति पदझारि,
सम्प्रदायवाद हारि, लोभधारि जीत में,
अर्थ अनी अधिकार केंद्र राज से नकार,
दिखा आश होनहार बोरि कूटनीति में |
गोलमेज पुरस्कार प्रान्तराज्य  पुष्पहार ,
गांधीजी के गले डार सत्यागृही भीति में,
आंग्लदेश की अजीत कांप गाई कूटनीति,
ज्यों नहाई सिन्धु बीच शिशिर की शीत में ||||

लगि मनोज के दिव्य तेज के रंग में,
सना हुवा था सदा मोह आतंक में |
अपना और परायेपन पे मुग्ध हो
छोड़ दिया था मुग्धामाया लुब्ध हो |
उलझ गया था काम देव के फंद में,
सहसा मानिनि माँ भंग के छंद में |
मन्मथ के घर में प्रवेश की बात में,
पाता था आनंद शिशिर की शीत में ||||

कब होगा दिन अंत रात कब आयेगी,
कालानल रवि काल कलित कर पायेगी |
चन्द्र चंद्रिका तुल्य भानु के ताप को
क्यों न रचा विधि दीर्घकाल निशि नाम को ||||

कामकला की अविकल मन से बात हो,
नित्य संग अनुरंग अनंग अभंग हों |
कामिनि करका हार गले में तंग हो ||||

हमें रुचे लयलोग भोग की नीति में,
हमें रुचे सम्भोग प्रीति की रीति में |
हमें रुचे निशियोग प्रफुल्लित प्रीति में,
रुचै न पुण्य प्रभात शिशिर की शीत में ||||

अंग में अनंग देखा, रंग बदरंग देखा,
तंग दिल संग देखा, रीत अनरीति में |
सत्य में असत्य देखा, माया में प्रपंच देखा,
भोग बीच रोग देखा धनिकों की प्रीत में ||
संत में प्रसंग देखा, पुण्य में प्रभाव देखा,
गुणातीत गुणी देखा, ईश्वर की भीति में |
कामिनी कटाक्ष देखा, मानिनी का मान देखा,
रस का सवाद देखा, शिशिर की शीत में ||||

एरी मतवाली मदधाली मानवाली आली,
मानले मनोज मतिहीन कहा मानेगो |
मैं तो कहूं मोहन के मोह पाश बीच नेक,
जाय कर ले आसरो तो प्राण बच जावेगो ||
काम की कमान बेधी काल दन्त बीच बैठी,
तू ही बता प्यारे बिन तोहि कौ बचावेगो |
सोच ले समझले री कीजे जिनयों ही देरी,
प्राण प्यारे दरस ते दुःख दूर जावेगो ||||

तू है नेक भोली भाली भाल के प्रभाववाली,
आजलौं न तूने हाथ डारो प्रीति रीति में |
दुविधा तब हिये मांहि कहा व्है हैं कहा नाहिं,
कौन भांति बोलिके जमायदूं प्रतीत मैं |
साँची बोल यो ही तो दुचित्त है न तेरे चित्र
मोहन के द्वारे काहे बावरी सभीत है |
डरपे न लालजू ते तू न काहू भांति हीन,
तू हू दाव जीत लेगी शिशिर की शीत में |||| 

*** (रंग में भंग) ***
हाथी स्नान छोड्यो मेरुदेस सूर छोड्यो,
कूर शुनि संग छोड्यो ठण्ड की विभीत में |
काम पुष्प बाण छोड्यो मानिनि ने माँ छोड्यो,
योगी योग ध्यान छोड्यो कामिनी की प्रीत में |
देशी धर्म भाव छोड्यो वीर को स्वभाव छोड्यो,
कारीगरी काज छोड्यो भारती विवाद छोड्यो
गांधी आंग्ल वास छोड्यो शिशिर की शीत में ||||

झारन में पात नाहीं सर में सरोज नाहीं,
आतप में ताप नाहीं साहस अनीति में |
भौरन में गुंज नाहीं हरे तरु पुंज नाहीं ,
वन में निकुंज नाहीं मोह नाहीं जीत में |
कोकिल को मान नाहीं केकाकल गान नाहीं ,
नभ में घनतान नाहीं ऋतू की अतीत में |
साहस बिन वस्त्र नाहीं चंद्रिका विनोद नाहीं,
कामिनी में मान नाहीं शिशिर की शीत में ||१०||

*** (शिशिर सुहाग) ***
धूप को उजास हारि आतप को ताप मारि 
झारन के पात झारि पद्म वारि सर में |
कूकल कोकिल निकारि मोरन को शोर टारि,
मेघन को देत गारि पंखा डारि घर में |
गुंजत भौंवरे विदारी रात देवन की विचारि,
कुजन को पुंज जारि भूख धारि तन में |
भाव को वैभव उजारि प्रकृति को रंग बिगारि
आइ शिशिर सिसाती जोगिनी सी जग में ||११||

एरी मराली चिकनी दूध की मलाई की सी,
फूल गुलदावदी सी गंध सरसावती |
कोमल रजाई की सी सुखद दुशाल की सी,
शिशिर की आग की सी छुवत सुहावनी |
पोषक पक्वान्न की सी नीकी रसायन की सी,
रसभरी दाख की सी मोड़ उपजावनी|
मकर के सूर की सी काम की कमान की सी 
कामिनी कपोल की सी को है मनभावनी || १२||

शिशिर ही ते पावक को मान चहुँ ओर हुवो
शिशिर ही तो मित्र भयो प्यारो मन भावतो |
शिशिर में रजाई दुशाल शाल ओढ़ी लेत,
शिशिर बिना को शीतल वारि उपजावतो |
शिशिर ही में मेवा पक्वान बहु पाक मिले,
शिशिर बिना को रसायन खवावतो |
शिशिर न होती तो पुष्टि सब खोय जाती,
शिशिर बिना को गुलदावदी सुन्घावतो ||१३||

कहुं तो सब जार अन्गारन को पनपे सखा करि सेस रहे,
कहुं दीन दुखी धनहीन परे ठिठुराय रहे दुःख पाय रहे |
कहुं बालक रोय रहे कहूँ तो पशु पक्षि फिरये मगुराय रहे,
कहुं पादप पात विहीन हुए शिशिरे सब ही सकुचाय रहे ||१४||

कूवड़े बनाती अंग अंग सुकडाती,
एडी होंठ मूह फटाती पर चीर के दुखाती है|
शीत से सताती सीसी शब्द है सुनाती,
जल बूँद से डराती रुखो अंग रंगवाती है |
दांत कट्काती ओस बिना मेघ लाती,
पेड़ पाला से जलाती निशि घड़ियाँ बढाती है |
आग से लुभाती हाथ कांख में बंधाती,
रात शिशिर की आती दुखी दीन को सताती है ||१५||

कोयला जलाती शीतल वायु को बहाती
बहु भोजन खिलाती ढेर बासनों के कराती है |
काया को कंपाती धुंआधार करवाती,
संग नारी रखवाती बहुभार उठवाती है |
कहुं प्राण घाती कहुं मोद उपजाती,
सब देश घूम आती ऋतुराज धाम जाती है |
कहत है 'कृष्ण' सदा सी सी सी सिसाती,
रात शिशिर की आती रेलगाड़ी सी लखाती है ||१६||

कबलों तू लूमेगी चांदनी की पाल ऊपर,
पाला पड़ी  रह्यो भयो चाँद को उजाला है |
ठिठुर रहे सारे गान निकसे मुखते न बात
काहे घर में न जात ओढ़ दुसाला है |
भीतर चल बैठ तू अंगीठी में अंग सेक
मान मेरो कह्यो नेक शीत विकराला है|
आधीरात आई पोढ़ रजाई दुशाला ओढ़
गात गर्मायले री आवत अब लाला है||१७||

*** (सोरठा) ***
विधुवदनी कल रात किमि सिसात रही लाला
उधर रहे सुगात कै रसके चस्के लगे ||१८||
*** (उत्तर) ***
शिशिर शीत विकराल अस नहीं जस मोहि दई दुःख
उरज बीच गलमाल बिना काज कुचली गई ||१९||
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Thursday, November 3, 2011

'सत्यवृत महिमा'- "SATYVRUT MAHIMA"

हमारे दादाजी, स्व. श्री सूर्यनारायणजी जोशी, स्व. श्री चंद्रनारायणजी जोशी व् स्व. श्री शेषनारायणजी जोशी के पिता, स्व. शरद जोशी 'कवि' एवं श्री रोमेश जोशी के ताउजी स्व. श्री श्रीकृष्ण जोशी 'नक़्शे नवीस', जिनका जन्म स्व. श्री कन्हैयालालजी जोशी के घर, उज्जैन में हुआ, एक महान विचारक, चिन्तक, कवि एवं कर्मठ व्यक्तित्व के धनी थे .
अपने जीवनकाल में उन्होंने ग्वालियर राजवंश के उज्जैन शहर में नक़्शे नवीस के पद पर सफलता पूर्वक कार्य किया एवं यह भी कहा जाता है कि उज्जैन शहर का गोपाल मंदिर चौकवर्तमान में छतरी चौक, जहाँ खम्भों पर मकान बने हुए हैं और नीचे राहगीरों के लिए जगह  छूटी हुई है, इसकी योजना इनके द्वारा ही तैयार की गई थी. कालांतर में अपनी क्षमता दिखाने के बाद भी सिर झुकाकर आदेशों का पालन करना व् अधिकारियों की चाटुकारिता करना, जो उनके स्वभाव से परे था तथा अंग्रेज ओवरसीयर द्वारा उक्त उपलब्धी अपने द्वारा करना प्रदर्शित किया गया था और इसी कारणवश श्री श्रीकृष्ण जोशी ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया था.
तत्पश्चात आज़ादी की लड़ाई में वे एक संपादक के रूप में अपने विचार प्रस्तुत करते रहे और इस कार्य हेतु उन्होंने एक स्वतंत्र एवं हस्तलिखित पत्रिका 'सत्यवृत महिमाका सम्पादन कार्य प्रारंभ किया. पत्रिका वे सीमित मात्रा में ही प्रकाशित कर पाते थे तथा सभी लेख वे स्वयं लिखते. कहीं से पुराने डुप्लिकेटिंग मशीन ले आये थे जिस पर छपाई का कार्य होता, पंचिंग करने के बाद स्वयं घर घर जाकर वितरित भी करते थे. यह आंशिक आय का साधन बनने के साथ आत्म संतोष भी प्रदान करता था. विभिन्न विषयों पर मंथन, चर्चा और जनसंपर्क उन्हें बड़ा रुचिकर लगता था और साथ ही इससे वे प्रेरणा भी लेते रहते थे.
 'सत्यवृत महिमा'- मुख पृष्ठ

'सत्यवृत महिमा'- प्रस्ताविका एवं अनुक्रमणिका पृष्ठ

इस पांडुलिपी के अलावा उनके द्वारा लिखी गई ४० से ऊपर कविताओं का संग्रह भी मौजूद है. उनकी कवितायें तत्कालीन जातिवाद, ब्राम्हणवाद, स्वदेशी, आजादी आन्दोलन, युवा पीढी को उत्साहित करना, सामाजिक कुरीतियाँ, व्यंग, समयानुकूल विषय से प्रेरित थी. कुछ कवितायें जैसे 'नैतिक विवेचना', 'आरोग्य दिनचर्या', 'कलि कौतुक कलाप', 'ऐसे नर ही नागरिक कहाते हैं', 'कर्म कुंडली' सुन्दर शब्दों में रचित हैं और आज के युग में भी पूरी तरह से संचरित की जा सकती हैं. 

कुछ कविताओं के अंश यहाँ प्रस्तुत हैं;


सुख संतत हो इस भारत  में
११.११.१९२९
|| त्रोटक छंद ||
जय जीवन अधार प्रभो, कमलापति नागर नाथ विभो |
हरिनाथ अनाथन के तुम हो, तुमरे सम कौन सहायक हो  ||
सिर टेक दियो पद पावन में, सुख संतत हो इस भारत में ||||
कतार उदार सहायक हो, सुखमूलक धर्म दिखावत हो |
सब दिव्य गुणादिक के घर हो, भवसागर के खेवट हो ||
कर तेज दया करके सब में, सुख संतत हो इस भारत में ||||
ठगियापन की मन टेक न हो, घटियापन की रूचि नेक न हो |
दुःख का दल दूर रहे दिल से, सुख की सुधिसाध चले हित से ||
शरणागत "कृष्ण" कहें मन में, सुख संतत हो इस भारत में ||||
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धैर्य प्रशंसा
८.१०.१९१६
धीरज के बल ते नर दुर्गम घोर विपति सहे दृढ़ता से,
धीरज को बल पाय गुणी कृतकार्य बने चमके सविता से |
धीरज काल को अनुकूल बने न अधीर सुधीर कहावे,
धीरज ते न कहा कहु होत फले सब काज सुधारस पावे ||
धीर धरी सुर सिन्धु मथ्यो निकसी कमला सबके मन भाई,
पै जब ही प्रकट्यो विष भीषण धीरज के बल पीर मिटाई|
अंत सुधा जब हाथ लग्यो, मन मोद भयो फल उत्तम पायो,
धीर धरो न अधीर बनो बिन धीर न काहू सुधारस पायो ||
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ॐ जय शिव ॐकारा
८.८.१९५५
ॐ जय शिव ॐकारा, हर शिव ॐकारा,
निजजनपालन तत्पर, मस्तक जलधारा|
ॐ जय शिव ॐकारा
शीर्षे शुभ शशि शोभित, गिरिजा सहचारी,
गिरी गौरव रूचि सारा, पावन पथ धारी |
ॐ जय शिव ॐकारा
योगयुक्ति रुचिधारी, वंद्यवरद धोरी,
जटा मुकुट  सह मस्तक, भुजंग कंठ धारी |
ॐ जय शिव ॐकारा ||
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Saturday, September 17, 2011

स्व. श्री श्रीकृष्ण जोशी 'नक़्शे नवीस'


Shri Shreekrishna Joshi
'Nakshe Navees'

Late Shri Shreekrishna Joshiborn in a renowned Jyotish family of Shri Kanhaiyalal Joshi of Ujjain. Shreekrishna Joshi a matriculate of early 20th century, being a Dashora Brahmin was closely associated with Mandsaur Malwa region. His ancestors were from Junagadh, Gujrat who later migrated to Mandsaur as priest of the Mandsaur Empire and the region. His father was a well known Jyotish and honored number of times for his knowledge and predictions, given in favor of many renowned people and to Nawab of Jaora. Shri Joshi was a Planchet operator and as per the evidences from the living people, nobody has seen earlier or after him, to operate the unique style of operating the Planchet. Shri Joshi were two brothers i.e. himself and Late Shri Srinivas Joshi {Srinivas Joshi was Father of Padmashri Shri Sharad Joshi, A legendry hindi poet and Shri Romesh Joshi, A famous hindi columnist}
Shreekrishna Joshi  died of natural death (10th August 1966), while he was staying with his eldest son Shri Suryanarayan Joshi.

** स्व. श्रीकृष्ण जोशी 'नक़्शे नवीस'- एक परिचय
वर्ष १८९०-९५ के बीच 'धनतेरस' पर जन्म लिए बालक श्रीकृष्ण जन्म से ही कला, साहित्य, देशोत्थान, आज़ादी इत्यादि विचारों से प्रेरित रहे. गरीब ब्राम्हण श्री कन्हैयालाल जोशी 'ज्योतिष' के घर तीन बेटियों के बाद जन्म लेने के कारण घर में उत्साह का वातावरण रहता था एवं श्रीकृष्ण का अत्यधिक लाड प्यार से लालन पालन हुआ. चूंकि पिता ज्योतिष विद्या में पारंगत थे अतः बचपन से ही श्रीकृष्ण को इस विद्या से रूचि तो थी ही, वे उस पर प्रयोग भी करने लगे. यहाँ इस बात का उल्लेख करना भी प्रासंगिक होगा कि श्री कन्हैयालाल जोशी को उनकी ज्योतिष विद्या और उसके आधार पर किये गये भविष्य कथन के लिये तत्कालीन जावरा नवाब के द्वारा पुरुस्कृत करते हुवे वन्श्वन्शानुगत नेम्नुक प्रदान की गई|

अपने वंश के सदस्यों द्वारा लालचवश श्री कन्हैयालाल ज्योतिष को परिवार से तिरस्कृत कर दिया गया और वे अपनी पत्नी और बच्चों के साथ अपनी विद्या के आधार पर जीविका चलाते रहे. बचपन से ही तहसील की कार्यवाहियों में तल्लीन रहने के कारण कानूनी जानकारियाँ पढाई के दौरान ही अर्जित कर ली एवं श्रीकृष्ण ने माधव कॉलेज उज्जैन से मेट्रिक पास कर लेने के बाद तत्कालीन ग्वालियर राजवंश के अंतर्गत उजैन में लोक निर्माण विभाग में नक़्शे नवीस (ड्राफ्ट्समेन) के पद पर कार्य करना प्रारम्भ कर दिया| असमय पिता की मृत्यु के कारण जल्द ही परिवार की जिम्मेदारी भी संभालनी पडी| नक़्शे नवीस के पद पर रहते हुवे श्रीकृष्ण जोशी की सबसे बड़ी उपलब्धि इतिहास में स्थापित होकर रह गई जो कि उज्जैन शहर में आज के छत्री चौक के नाम से जाना जाता है. हुवा यों कि उज्जैन के गोपाल मंदिर चौक पर समय असमय होने वाली यातायात की परेशानी से निजात पाने के लिये कुछ अंग्रेज इंजिनीयर काफी समय से परेशान थे परन्तु उचित निराकरण नहीं हो पा रहा था. श्रीकृष्ण जोशी ने अनुमति प्राप्त कर के उस पर कार्य किया एवं चौक के चारों तरफ बने हुवे मकानों को पीछे न हटाते हुवे भूतल पर पिलर्स के सहारे १० फीट पीछे कर दिया जिससे पदयात्रियों के लिये काफी सुविधा हो गई एवं सड़क पर वाहनों के लिये पर्याप्त जगह भी बन गई | कालांतर में उक्त प्रणाली को ग्वालियर के बाड़ा चौक व् वर्तमान उज्जैन के फ्रीगंज में भी क्रियान्वित किया गया |
उज्जैन शहर के कार्तिक चौक , खिरनी की गली में किराए के मकान में रहते हुवे श्रीकृष्ण जोशी अपने विद्यार्थी जीवन से ही कविता लेखन की ओर आकर्षित थे एवं उस समय उन्होंने कॉलेज में होने वाले सभी कार्यक्रमों में  अपनी कविताओं के ओज से समा बांधा. उज्जैन व् ग्वालियर में आयोजित राजकीय समारोहों के सार्वजनिक कवि सम्मलेन में भी उनके द्वारा कवितायें पढी व् प्रस्तुत की जाती रही. हालांकि उन्हें मिले पारितोषिकों का विवरण उपलब्ध नहीं है परन्तु इन आयोजनों से मिलने वाली राशि से परिवार के संचालन में मदद मिलना यह दर्शाता है कि उन्होंने कई पारितोषिक राशियाँ भी प्राप्त हुईं. उपलब्ध संग्रह के अनुसार वर्ष १९१५ की उनकी कविता 'नव वर्ष', १९१६ में 'धैर्य-प्रशंसा' बहुत सराही गई. उसके बाद सतत लेखन कार्य देश के मौजूदा हालात, भ्रष्टाचार, विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार, अंग्रेजों के द्वारा भारतीयों को प्रताड़ित करना, खादी, स्वदेश इत्यादि विषयों पर उनकी लेखनी ने विस्तृत अंकन किया  १९२७ से १९४५ तक उन्होंने अपनी रचनाओं से संग्रह तैयार कर दिया साथ ही वे उज्जैन में साप्ताहिक समाचार पत्र 'जाति जीवन'' एवं 'सत्यवृत महिमा' का सम्पादन करते रहे | इन पत्रिकाओं का सम्पादन हाथ से लिखकर डुप्लीकेटिंग मशीन पर छापने के बाद स्वयं वितरण करते थे |
'चक्कर में', 'ऐसे नरधीर ही नागरिक कहाते हैं', 'हो जाती संगठित जो यह विशाल जाति (देश)', 'जागिये', 'अन्धकार छाया है घोर', 'भारत सुत तुम वीर बनो', 'धर्मवीर की प्रतिभा', 'जीवन का पाठ', 'प्रताप की याद', 'बांके विरोधी', 'मणि झलके है आँखों में', 'वसंत विरह', 'वसंत स्वागत', 'होलिकोत्सव- नेक सलाह', कुसुम तुम क्यों कुम्भ्लाते हो', 'स्वदेश संगठन हित की आवश्यकता', 'आंसू', 'जलाओना', 'कर्म कुंडली',    'खादी महंगी है', 'त्याग है की पूर्ती', 'शिशिर की शीत में', अपटूडेट कोरे ग्रेजुएट', 'किसी से कभी न हारूंगा', 'में हूँ एक सिपाही', 'झूम रही है डाली', 'अज्ञात यौवना', 'रे खगेश', 'कलि कौतुक कलाप', 'रात की करामात', 'म्हारी डाबली खोवाणी', 'उज्जैन शहर है आला', 'माखन की डलियाँ', 'छुप छुप जाते हो', 'दिलदार दिल'*, 'जमुना के तट पर', 'खादी को जबते तजी', 'जीवन की प्रहेलिका- गद्य', 'मिट नहीं सकता- गीत', 'नैतिक विवेचना', 'नैतिक नयन', 'ठठं ठठं ठं ठठठं ठठं', 'विद्वसंगति', 'विद्या प्रशंसा' एवं कई अन्य आपके अप्रकाशित काव्य हैं एवं इसके अलावा 'सत्यवृत महिमा' स्वयं के द्वारा प्रकाशित खंड काव्य है|
स्व. श्रीकृष्ण जोशी 'नक़्शे नवीस' की लगभग सभी रचनाएं अप्रकाशित हैं, परन्तु 'दिलदार दिल' का शायद किसी जगह प्रकाशन हो चुका था जो फिल्म श्री ४२० में दिल का हाल सुने दिल वाला, सीधी सी बात न मिर्च मसाला, कहके रहेगा कहने वाला, दिल का हाल सुने दिल वाला' गीत के रूप में गायक अबू मालिक द्वारा परिवर्तित रूप में गाया गया. *
श्रीकृष्ण जोशी 'नक़्शे नवीस' प्रसिद्ध साहित्यकार एवं व्यंगकार 'पद्मश्री' स्व. श्री शरद जोशी के ताउजी थे| श्री शरद जोशी बचपन से ही अपने ताउजी  की काव्य एवं साहित्य के प्रति साधना में काफी रूचि रखते थे एवं उनके कार्यों और रचनाओं से प्रेरणा लेते हुवे    अपनी जीवन रेखा के रूप में अंगीकार किया |
स्व. श्रीकृष्ण जोशी 'नक़्शे नवीस' की रचनाओं को  पढ़कर यह आभास होता है कि वे हिन्दी साहित्य के एक ऐसे सूर्य हैं जिसका आलोक सदैव हिन्दी जगत् को दैदीप्यमान करता रहेगा। **************************