Tuesday, June 12, 2012

वर्षा वर्णन (Varsha Varnan)

वर्षा वर्णन
~ शार्दूल विक्रीडित छंद ~
वासंती ऋतुकाल अंत लखि के आया बली ग्रीष्म है,
भूमि पे अति उग्र पावक बढ़ा रूखे हुवे रुख है |
सूखे झील नदी न शीत मिलती लू की लगी वायु है,
प्राणी जीव चराचरादी तड़पें हा ईश क्या दुःख है ||

पंखे की लपटें लगे गरम हैं, पानी नहीं शीत है,
राजा तो गिरिश्र्नगपे चल बसें, पै दीं बेठोर है |
होता है न उपाय शीतारिपू का, प्रस्वेद जारी रहे,
है आराम न एक भी पल कहीं, हा नाक में प्राण है ||

हो उन्मत्त निदाध निर्दय भाया, संसार संतापदा,
तापे पावस भूप संग ले आए हरी आपदा |
भारी भीर भई भिरी दुहु अनी गर्मी भागी शीत से,
हारा ग्रीषम प्राण ले निज भगा जैसे निशा सूर्य से ||

वर्षा ग्रीषम युद्ध बीच नभ में आये महा मेघ हैं,
जैसे शूर अनेक शास्त्र सजी के युद्धार्थ एकत्र हैं |
विद्युच्छक्ति अनेक बार लपके आकाश शोभा लहे,
बूंदों के शर शीत चंचल चले पानी क्षितीपे बहे ||

बाढ़ें मेघ गिरीश तुल्य कबहु गरजे डरावे कभी,
आभा को चमकात खूब बिजली आँखे मिचावें कभी |
वर्षा की जय हार होत कबहु ग्रीष्माहू जीते हरे,
वर्षा से सुख शीत होत ग्रीष्माहू कबहु गर्मी करे ||

ऐसे देखि परास्त आत्मबल को ग्रीष्मभग्यो जान ले ,
पीछे से दल अस्त्र शास्त्र रिपु के वर्षा स्वयं ही दले |
छायो राज भलो बहू सुख भयो आनंद फैल्यो चहुँ,
ग्रीष्मा के दुःख से दुखी नरन के बा सौराव्य को का कहूँ ||

गावें हंस मयूर काक बगले आकाश में चैन से,
पावे कच्छप नक्र मीन जल में आनंद बसति से |
नानाकार अनेक मेघ नभ में काले सुहाने लगे,
जैसे विष्णु अनेक रूप धरि के आराम देने लगे ||

मेघों से जल भूमिपे बरसता धूलि न दीखे कहीं,
बाढ्यो कीच चहुँ दिशा पर भरे तालाब पूरे सही |
आई पूर नदी लाही विटप हु सम्पन्नता को बड़ी,
भूमी ने पति को निहारि हसिके ओढी हरी चूनड़ी ||

वर्षा में अवलोकि मेघ जल के कैसे खुशी मोर हैं,
नाचे नित्य विमुक्त कंठ युत हो के का कहें कुञ्ज में |
मेघों से शशि झांकता पुनि छिपे भागे लाखे भूमि को,
नारी सुन्दर देखि लुब्ध जन ज्यौं पावें न विश्राम को ||

दीखे राह न धंस में शशि छिप्यो तारे न खद्योत है,
रोके पंथ नदीं ने सब जगे फैल्यो बहु कीच है |
खावे टक्कर मेघ आप नभ में भारी करे शौर है,
देखी दिव्य प्रकाशमान चपला की चंचला चाल है ||

पानी के तट पे ध्वनि नित रहे शालूर के शब्द की,
बैठे बाहर भजंग बिल के लें मौज बर्सात की |
रीझे दीपक पे पतंग नित ही परवा नहीं प्राण की,
पिस्सू मच्छर की बनी अब भली ज्यौं रात में चोर की ||

फूले पंकज पुष्प पूर्ण दिन में संकोच हो रात में,
ऐसे ही सकुच कुमोद दिन में फूले सदा रात में |
तालों में सुखपूर्ण जौंक बिचरे प्यासी रहे खून की,
मानो दुर्जन को मिले सुख तौ हानी करे और की ||

मीनों के हित मौन हो बक मुनी पानी किनारे रहे,
पाखंडी तपसी सुवृत्ति दिखला ज्यौं चाल चुके न हैं |
फूले फूल अनेक रंग तितली उन्मत्त है गंध में,
बैठी आय पसार जाल मकडी आखेट की घात में ||

बैठे चातक झाड पे मन ला पानी चाहे स्वाति का,
कूके कोकिल नित्य उच्च सुर से शौक़ीन है आम का |
बांधा है सुठी गह भी चटक ने क्या चातुरी से बना,
पै शाखा मृग शाख पे लटकता है मेह का दुख ना ||

फूले सांझ अनेक रंग धनुके प्यारे लगे मेघ में,
मेघों के बहु रूप सुन्दर लगे श्रीराम के रंग में |
होये खूब झरी धनान्ध तिमिर प्रायः दिवा में परे,
कामी को शिखी शब्द व्याकुल करे हा! कामिनी रो रहे ||

खेले सारस हंस नवी जल में चोंचे लड़ाते तने,
छत्री ले सकुटुम्ब मानव घने तीर्थे सुचारी बने |
घाटों पे द्विज वारि से निपटके देवादि को पूजते,
हाथी सानंद हो अथाग जल में निर्भीक हो खेलते ||

पाया काल भला लगे कृषक भी हैं खेत के काम में,
पानी से सब खेत सस्य युत हो हैं डौलते चैन में |
चारों और वनस्पति बहु भये क्या बाग़ क्या वाटिका,
देखी सम्पति और की जल गया पौदा जवासाकी का ||

फूले फले फली फले फल कहीं करीगरी देखिये,
बागों में बहुधा लता घर बने सुदृश्य क्या भाखिये |
बेली पल्लव पुष्प को निरखिके कर्तार को जानिये,
क्या क्या 'कृष्ण' कहे जहां जहां निरखिये शोभा नई पाईये ||
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